सोमवार, नवंबर 30, 2009

Wake up time

We should wake up the “next” day
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This text was posted for the students of a hostel for which I was the Incharge for 3 years. I thought it is useful:

When the Dean (students) climbed on the stage to hand over the gift, the
stage was empty, the speaker had athletically jumped down; next fraction of the
second, he was on the stage again to receive the gift! I had a pressing question to
Mr. Narayana Kartikeyan: “what time does he get up?”. I have this question also
for Mr. Tendulkar, Mr. Pathan, Ms. Aishwairya Rai, Mr. Bill Gates or even our
Prime Minister Mr. Singh. You may guess the answer.

All the people listed above are so called “successful people”. We can take
up some more examples and there may be some “rare cases” as well. The point I
am trying to drive is: what is a typical time to wake up and why? Nationwide at
every IIT, classes start at 8:00 AM. It is almost sure that in a week (or in a month)
each of us will have at least one interesting class at 8:00 AM. A well-known
human tendency is to avoid some thing that disciplines you. There is another
thing called the “Biological clock”- which you must have experienced many a
times till now.

We get up at some time as per our schedule. The problem is not with the
getting up. It is with the time we chose to go to the bed. If we wish to get up the
next day we should go to the bed before 11:59 PM on the previous day.
Note that 12:01 AM belongs to the next day. A seven-hour sleep makes your
face look beaming for Janta in the institute; you yourself will feel better (from
inside). Take these suggestions, otherwise who knows, someone may bang at
your door at 7:30 AM when you are looking forward for a sleep of 4 more hours.
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You may also like to remember a poem you must have read during your primary education about getting up early ,describing the redness of the sun, washing the face, brushing; blooming of the flowers, movement of butterflies,
birds…. Do not be upset if you hear monkey’s sounds while in This hostel.

सोमवार, नवंबर 16, 2009

क्या भौतिकी वास्तव में उपयोगी है?

Is Physics really useful? By H. L. Armstrong.
American Journal of Physics -- August 1982 -- Volume 50, Issue 8, pp. 679-679


[This published letter was brought to my attention by one of the graduate student in IIT Madras]. I wrote my reaction as follows:

"I just glanced through the 'letter'. It raises a bit of interest on the questions raised in there. Even though I do not find myself competent to comment on any of these, I wonder, if there could be some way out to get rid of this threat? (It is obvious that the student (I do not know who he is?) or his group has drilled this letter (published in 1982) out of some interest).

Are we really trying to threaten the students (with Physics)? Or in other words, could we do something to make their threat a bit less (or generate a friendship with the subject) but imparting at the same level? Or Are we able to just generate some interest (question number x in Cafetaria*) to read extra about the topics we 'covered' in the 'extra' classes?

Regards,

Prem"
[* Cafeteria is referred here to the 'students feed back form for teaching' at IITM].

मेरा लेख और आशुतोष का धांसू अनुवाद

एक पहाड़ी भौतिकविद का रोजनामचा

रविवार, मार्च 29, 2009
भाग-1: हमें गांव की आत्मा को जिलाए रखना है, लेकिन कैसे!

मुसीबत बना वीजा
‘इन कागजों से आपको वीजा नहीं मिल सकता जनाब’ चेन्नई के वीएफएस काउंटर पर बैठी महिला बोली। चेन्नई के ब्रिटिश हाई कमीशन का चक्कर काटने के बाद मैं यहां पहुंचा था। वहां मुझे बताया गया, ‘यहां से तीन किमी आगे।’ मैंने नक्शे के बाबत पूछा तो पता चला वह है नहीं। मैंने आटो लिया और उसे वीएफएस के नजदीक रुकने को कहकर दफ्तर के भीतर पहुंचा। हाई कमीशन और वीएफएस के बीच इस भाग-दौड़ और इंतजार में पिछला एक घंटा पहले ही बरबाद हो चुका था। काउंटर पर बैठी महिला ने मुझे ‘जमीन के कागजात’ सहित तमाम तरह के दस्तावेज लाने का आदेश दिया। आईआईटी में रहने की वजह से हम इतने ‘अनौपचारिक’ हो जाते हैं कि मुझे तथाकथिल ओरिजनल डाक्यूमेंट्स (जैसे बैंक पासबुक, हालांकि मेरे जेब में एक बैंक स्टेटमेंट मौजूद था) साथ रखने की भी जरूरत महसूस नहीं हुई। बहरहाल, मुझे अहसास हो गया कि इन दिनों यूके का वीजा पाना आसान नहीं है। लेकिन क्यों? इस सवाल का जवाब हासिल करने के लिए मुझे इतनी दूर यूके (स्कॉट्लैंड) आना पड़ा।

चीयर्स

‘चीयर्स’, एडिनबर्ग की हैरियट वाट युनिवर्सिटी के पास बस से नीचे उतरते ही एक शख्स ड्राइवर की ओर मुखातिब हुआ। ड्राइवर की ओर से भी वैसी ही प्रतिक्रिया हुई। अपनी बारी में मैंने उसे धन्यवाद कहा और जवाब में ड्राइवर ने भी मुझे इज्जत बख्शी। यहां हर आदमी बस से उतरने पर ड्राइवर को उसकी सेवाओं के लिए धन्यवाद देना नहीं भूलता। बस हमेशा तयशुदा स्थान पर ही रुकती है। युनिवर्सिटी में बातचीत से फारिग होने पर लोग एक दूसरे को ‘चियर्स’ कहते हैं। इसे भारत में बोले जाने वाले ‘अच्छा’ का समकक्ष समझिए। हाइया भी यहां एक तरह की ग्रीटिंग है। असली स्काटिश उच्चारण बहुत शानदार है, हालांक नवागंतुकों के लिए इसे समझना थोड़ा भारी पड़ता है।

स्कॉट्लैंड के गांव

पहले तीन हफ्ते मैंने अपने दोस्त के घर पर बिताए। शुरुआती दिनों में हमारा वक्त भारत के लोगों व भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में बतियाने तथा शिराज के एक ग्लास या कभी-कभी इतालवी व्यंजन के साथ एनडीटीवी और मेरी पसंद के दूसरे टीवी चैनलों को देखने में बीता। मैंने पड़ोसी देशों के चैनलों को भी भरपूर दिचलस्पी के साथ देखा (भारत में इन्हें देखने की गुंजाइश ही कहां!) इसके बाद मैं रहने को एक गांव में चला आया। यहां भेड़ और घोड़ों के फार्म थे। शुक्रवार और सप्ताहांत के दिन बच्चे गलियों में दौड़ते-कूदते दिखाई पड़ते थे। यह गांव एडिनबर्ग से पश्चिम की ओर ग्लासगो जाने वाली सड़क पर पड़ता है। एक डबलडेकर बस गांव से होकर गुजरती है। इसके अलावा एक रेलवे स्टेशन भी यहां है। अगर आपको ट्रेन की सवारी करनी हो तो आप चढ़ने के बाद टीसी से टिकट ले सकते हैं। दोनों तरफ का टिकट लेना एकतरफा टिकट के मुकाबले सस्ता पड़ता हैं।
गांव में पोस्ट आफिस और एक छोटा सा स्टोर भी है। स्कॉट्लैंड में आप खेतों के बीच बेरोकटोक घूम सकते हैं। हम वहां खूब घूमे और देखकर हैरान हुए कि हमारे कुमाऊंनी पहाड़ों के सीढ़ीदार खेतों के विपरीत यहां ट्रैक्टर मजे से ढलवां खेतों में चलते है। गांवों में चोरी की खबरें बिल्कुल नहीं सुनाई पड़तीं। अलबत्ता शहरी इलाकों में कभी-कभार ऐसे हादसे हो जाते है। खास तौर पर कार स्टीरियो या सैटेलाइट मैप रीडर पर उड़ाने वालों की निगाह रहती है।
पास ही के एक अन्य गांव में बच्चों के अच्छे स्कूल हैं। इसी वजह से इस गांव में स्कूली उम्र के ढेर सारे बच्चे दिखाई पड़ते थे। सुबह, जब कभी मैं या मेरी बस लेट हो जाती, अपनी बस का इंतजार करते पचासेक बच्चों के हुजूम से स्टाप खचाखच भरा मिलता था।

भाग-दोः दाल-भात, रोटी-सब्जी और जर्मन सूप, सलाद व नूडल


मैं (हिमालयी की तहलटी का निवासी, पिछले एक दशक से दक्षिण भारत में प्रवास कर रहा हूं) एक रूसी अध्यापक और जर्मन छात्र के साथ एक घर साझा करता हूं। हम तमाम मुद्दों पर बात करतें हैं और इसी बात ने मुझे इस ब्लाग को लिखने को प्रेरित किया। हम लैटिन और संस्कृत की समानता पर चर्चा करते हैं (आज लैटिन बोलने वाला कोई नहीं रहा। सिर्फ पानी के लिए अक्वा जैसे वैज्ञानिक या जीववैज्ञानिक नाम ही वैज्ञानिक शब्दावली में इस्तेमाल होते हैं)। इसके अलावा हम पेरेस्त्रोइका-ग्लासनोस्ट काल, बर्लिन की दीवार, म्यूनिख, यूरोपियन यूनियन और जाने किन-किन विषयों पर बात नहीं करते! हम भारतीय, जर्मन, रूसी या फिर स्काटिश भोजन करते हैं। सचमुच ये यादगार दिन हैं।
स्कॉट्लैंड ब्रिटिश संघ का एक देश है, जिसकी अपनी संसद है। जब मैंने लोगों से पूछा कि आप अलग क्यों नहीं हो जाते, जवाब मिला- इसे उन्हें कोई फायदा नहीं होगा। आमूमन लोग यहां भारत के बारे में चर्चा करते हैं, हमारे उपग्रह भेजने के बारे में, कश्मीर के बारे में, स्लमडॉग मिलिएनेयर के बारे में और भारत के जातिवाद के बारे में। वे अपने उदाहरण देते हैं कि किस तरह उनका एक परिचित भारतीय अपने माता-पिता की छांटी गयी कई लड़कियों में से अपनी दुल्हन चुनने के लिए भारत गया।

स्लमडॉग मिलिएनेयर

यूनिवर्सिटी में गिनेचुने फूडकोर्ट हैं। सभी हास्टलों (लड़के-लड़कियों के लिए मिले-जुले) की अपनी-अपनी रसोइयां हैं, जहां विद्यार्थी जब चाहे पका सकते हैं। हालांकि थोड़ा महंगा है लेकिन पश्चिम में भी छात्रों के लिए हास्टल की सुविधाएं हैं। युनिवर्सिटी में चैपलेंसी भी है, जो हर महीने एक मंगलवार को एक पाउंड में सूप और ब्रेड-बटर देते हैं। कई विदेशी और कुछ ब्रिटिश छात्र नियमित रूप से वहां जाते हैं। मैं भी एक रोज वहां पहुंचा। उस दिन आस्कर पुरस्कारों की घोषणा हुई थी। एक प्रोफेसर ने मुझसे पूछा, स्लमडॉग को इतने पुरस्कार मिलने पर आपको खुशी हुई? मैंने जवाब दिया, ‘दरअसल यह ब्रिटिश फिल्म है।’ फिर मैंने पूछा, क्या संगीतकार को कोई पुरस्कार मिला? सकारात्मक जवाब मिलने पर मैंने कहा, हां, मैं खुश हूं कि उसे भी आस्कर मिला है। पूरे फरवरी भर और शायद उससे भी पहले से यहां की डबलडेकर बसों में स्लमडॉग मिलिएनेयर के बड़े-बड़े बैनर देखे जा सकते थे। कई लोगों ने यह फिल्म देखी। लोग भारत को लेकर उत्सुक दिखाई पड़ते हैं।

परदेशी? कहां हैं ब्रिटेनवासी

मेरा दोस्त पिछले दस सालों से एडिनबर्ग में रहता है। मेरे स्कॉट्लैंड में पदार्पण से पहले उसकी पेट्रोल चालित कार को एक महिला ड्राइवर ने ठोक दिया था। संयोगवश वह इस पुरानी कार से छुटकारा पाना ही चाहता था। (यह एक अलग कहानी है कि उसने अपनी नई डीजल कार में किस तरह पेट्रोल भरवा लिया)। उन्हीं दिनों की यह किस्सा है। एक बार घर लौटते के लिए उसने एक बस पकड़ी। बस में ढेर सारे विदेशियों को बैठा देख वह हैरान रह गया। बाद में मुझे भी उसकी बाद की सच्चाई का अहसास हुआ। यहां विश्वविद्यालय में पहुंचकर मैंने विदेशी छात्रों की संख्या का अंदाजा लगाना शुरू किया। मैं सोचता था कि यहां हर कोई अंग्रेजी बोलता होगा (जापान और जर्मनी के विपरती, जहां कई बार वैज्ञानिक विमर्श के दौरान में अकेला अंग्रेजीदां साबित होता था।) जैसा कि मैंने पहले बताया, अगर आप यहां नए हैं तो आपके लिए स्काटिश उच्चारण को समझना खासा मुश्किल पड़ता है। एक अन्य भारतीय को, जो किसी एनआईटी से एक हफ्ते की ट्रेनिंग के लिए यहां आया था, मुझे पीछे ले जाकर समझाना पड़ा। आईडी कार्ड सेक्शन के सेक्रेटरी ने उससे कहा, ‘मुझे कंप्यूटर में डीटेल्स डालने हैं और इस काम में मुझे आधे घंटे का वक्त लगेगा। अब आप चाहे तो इंतजार कर लें या फिर आधे घंटे बाद आएं।’ भारतीय के कुछ पल्ले नहीं पड़ा तो चिल्लाया, ‘क्या?’ मैं इस वार्तालाप को समझ सकता था। मैं उस भारतीय भाई से सात हफ्ते सीनीयर जो था। (पहले तो मुझे लगा कि मैं फिर किसी गैर-अंग्रेजी भाषी देश में पहुंच गया हूं।)
दरअसल, मेरा आशय है कि आप यहां गलियारों से गुजरते वक्त, लंच टेबलों पर और यहां तक कि लैब-क्लासेज में चीनी, जर्मन, फ्रेंच, हिन्दी/उर्दू, अरबी, रूसी और बेशक अंग्रेजी भाषाएं सुन सकते हैं! यह बात साबित करती है कि ब्रिटेन के विश्वविद्यालय इन दिनों सिद्धांततः सिर्फ फीस आदि के आधार पर विदेशी छात्रों को प्रवेश दे देते हैं। अपनी एक नई शोधछात्रा से मुझे मालूम पड़ा कि जब वह दूसरे विश्वविद्यालय में थी, उसके साथ एक भारतीय भी पढ़ता था। लेकिन गणित की कक्षाओं में ब्रिटिश छात्रों की बनिस्बत चीनी छात्र बहुत ज्यादा (90 प्रतिशत) थे! मुझे लेक्चर देने के लिए एक कंपनी और ग्लासगो के एक अन्य विश्वविद्यालय में भी जाने का मौका मिला। जहां तक उच्च शिक्षा या शोध का सवाल है, मैंने महसूस किया कि स्काटिश या ब्रिटिश नागरिक अल्पसंख्यक ही हैं। मुझे नहीं पता कि यह समूचे ब्रिटेन में आम प्रवृत्ति है लेकिन कम से कम मेरा अनुभव तो यही कहता है। हाल ही तक डिपेंडेंट वीजा धारी लोगों को भी यहां नौकरी करने की इजाजत मिल जाती थी। दूसरे अनेक देशों में ऐसी छूट नहीं है।

भाग-तीनः
गांव की आत्मा को जिलाए रखना होगा, लेकिन कैसे?

क्या में वही इंसान बना रह सकता हूं, जहां से मैं आया था? फिर ओबामा को आप क्या कहेंगे?
भारत कई ‘राष्ट्रीयताओं’ का देश है। यूरोपीय समुदाय के लिए यह शानदार उदाहरण की तरह है, जो हाल ही में एकीकरण की तरफ बढ़ा है। ब्रिटेन की कई नोटों की परिपाटी के विपरीत उनकी एक मुद्रा है (एक बैंकनोट)।
भारत के कई इलाकों में हिन्दी लोगों के बिल्कुल पल्ले नहीं पड़ती। भारतीय अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में ये इलाके अच्छा-खासा रसूख रखते है। खान-पान की उनकी आदतें और तहजीब हिन्दी हृदयस्थल वालों से बिल्कुल अलग है। यहां शायद ही कोई समस्या हो। मसलन, पिछले करीब एक दशक से मैं दक्षिण भारत में रह रहा हूं। खाने-पीने की अपनी चीजों के अलावा मुझे दक्षिण भारतीय भोजन भी पसंद है। मुझे समुद्र का किनारा भाता है और यहां का मौसम भी। मेरा काम और काम करने की जगह भी बुरी नहीं है। लेकिन, कितनी शर्मनाम बात है कि मुझे नहीं पता कि तमिल में ‘बचाओ-बचाओ’ चिल्लाने के लिए क्या बोला जाता है।
इसी तरह, ब्रिटेन, अमेरिका या और कहीं रहने वाले किसी भी भारतीय को अपना भोजन पसंद आएगा। ब्रिटेन में रहने वाला फ्रेंच अपने देश का भोजन ढूंढ़ता है। यह एक कुदरती प्रवृत्ति है। लेकिन अब इसे क्या कहिए कि 40 साल परदेस में बिताने के बाद भी कोई उस जगह से चिपका रहे, जहां से वह आया है। स्थानीय संस्कृति से घुलने-मिलने के बजाय हम अकसर इसके विपरीत हरकतें करने लगते हैं। हालांकि, दिक्कत दोनों ही तरफ से होती है। धरती पर हर किसी को चाहिए कि इस मुसीबत से साकबा पड़ते ही बगैर देर किए तत्काल समाधान कर ले। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा इस बात की जीती-जागती मिसाल हैं। उनका जीवन इस समस्या की कहानी तफसील से बता देता है।
खास तौर पर भारत आज तेज बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं। हमारी विकास दर 5 फीसदी से ज्यादा है। संचार क्रांति की बदौलत लोगों की जीवनशैली में भूचाल आ गया है। पश्चिम के मुकाबले हम राजनीतिक रूप से ज्यादा सचेत हैं। पश्चिमी मुल्कों में लोग दशकों पहले टेलीफोन का इस्तेमाल करने लगे थे। लेकिन मेरे लिए हाल फिलहाल तक चेन्नई से चंपावत के लिए 10 मिनट की काॅल कर पाना असंभव था। इसकी दो वजहें थीं- पहली, मुझे किसी पब्लिक बूथ पर जाना पड़ता था या किसी आपरेटर के जरिए कॉल बुक करनी पड़ती थी। दूसरी, कॉल बहुत महंगी थी। आज नजारा पूरी तरह बदल चुका है। दूसरी ओर यह देखना बड़ा दिलचस्प है कि जो लोग कुछ दशक पहले भारत से निकल गए थे (और बीच-बीच में थोड़े दिनों के लिए लौटते भी रहे) आज भी पहले की तरह सोचते हैं।

ढलवां खेत बनाम सीढ़ीदार खेत

इस गांव ने मुझे अपने उस गांव के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया, जहां मैंने जीवन के शुरुआती 17 साल बिताए। हमारे पास भेड़ें नहीं थीं लेकिन एक बकरी जरूर थी (जो मेरी थी)। हम गाय और भैंसें भी पालते थे। जंगल की ओर कई गोचर थे। हर परिवार बारी-बारी से महीने में एक बार उन्हें लेकर जाता और शाम को लौटा कर लाता था। ढलवां खेत जैसी चीज हमारे यहां नहीं होती, उनकी जगह सीढ़ीदार खेत होते हैं। गांव के बीच सड़क की जगह छोटी टूटी-फूटी पगडंगी हुआ करती है। अगर कोई बड़ा-बूढ़ा बीमार पड़ जाए तो उसे अस्पताल पहुंचाने के लिए किसी के कंधे या डोली की दरकार होती है।
मैं हर बार गर्मियों में या जब कभी मौका पड़ता है अपने गांव चला जाता हूं। आम भारतीय स्थितियों की तरह यहां भी बहुत से लोगों के पास नौकरी नहीं है। बेरोजगारी पहले भी थी लेकिन तब आधुनिक जीवन शैली का ज्यादा दबाव नहीं था। संस्कृति/शिक्षा के लिहाज से अल्मोड़ा, नैनीताल और यहां तक कि पिथौरागढ़ की तुलना में काली कुमाऊं (ज्यादा जानकारी के लिए प्रख्यात शिकारी जिम कार्बेट की ‘मैनईटर्स ऑफ़ कुमाऊं पढ़िये) बहुत गरीब रहा है। यहां तक कि लोहाघाट शहर के लिए हल्द्वानी से सीधी बस है और टनकपुर से पहुंचने वाली खस्ताहाल सड़क पर उसे निर्भर नहीं रहना पड़ता। पिछले सात सालों में चम्पावत जिले में 11 डीएम बदले लेकिन इस अभागी सड़क के भाग नहीं बदले। यहां निराशा का सागर हिलोरें मारता है और सामाजिक-राजनीतिक हालात के कारण बेरोजगारी भारी समस्या बनती जा रही है।

जरूरत है चरित्र, वैज्ञानिक तौर-तरीकों और दूरगामी योजना
एक तरह से देखा जाय तो यह दुनिया एक बड़ा गांव है। या कहें यह दुनिया विभिन्न भाषा-संस्कृतियों वाले गांवों, देशों, इंसानी सीमाओं आदि से मिल कर बनी है। लोगों में स्पष्ट भेद हैं। एक बार मैंने अपने एक विदेशी छात्र से पूछा- कौन सी बात तुम्हारे देश को यूरोपियन यूनियन के दूसरे देशों से फर्क करती है, उसने बिना देर किए जवाब दिया- ‘हमारा चरित्र’!
भारत से पहुंचा एक अन्य आगंतुक ब्रिटेन में भारतीय मूल के रईसों के बारे में चर्चा करते हुए बोला, ‘भारत में भी कई धनकुबेर राजस्थान के रेगिस्तान में पैदा हुए हैं, जहां पीने तक को पर्याप्त पानी नहीं मिलता। जबकि दूसरों के पास पानी, खेती-बाड़ी सबकुछ है लेकिन वे अपना कीमती समय और ऊर्जा अवैज्ञानिक खेती में बरबाद करते हैं और गरीब के गरीब बने रहते हैं।’ यकायक मुझे लगा, जैसे यह टिप्पणी हम लोगों के मौजूदा हालात पर की जा रही है। दरअसल जरूरत नीचे लिखे कुछ बिंदुओं पर विचार करने की हैः-
1. स्वच्छता सहित वैज्ञानिक जीवनशैली
2. जल संरक्षण एवं संग्रहण
3. साझी जमीन के माध्यम से संयुक्त संपत्ति उद्यम में ‘शेयर’ की अवधारणा को लागू करने की जरूरत
4. ग्रामीण पर्यटन (पर्यटक गांववालों के पास रुकें और उन्हें पैसा दें)
5. लघु पनबिजलीघर और सौर ऊर्जा/सौर ताप
6. मोबाइल, बैटरियों आदि को सौर ऊर्जा से चार्ज करने का विकल्प। शहरों व गांवों में राजमार्गों पर सौरकेंद्र की व्यवस्था
7. प्राइमरी और हाईस्कूल शिक्षा
8. मूलभूत विज्ञान में उच्च शिक्षा (गणित और अर्थशास्त्र सहित)
9. कंप्यूटर और इंटरनेट शिक्षा
10. अंत में, आधुनिकता के साथ-साथ स्थानीय संस्कृति का संरक्षण

(पुनश्चः मैं ब्रिटेन दो महीने के लिए गया था। अपने पेशेगत काम के अलावा यहां मैं कई दूसरे अनुभवों से रूबरू हुआ। मुझे लगा कि ये बातें इन्हें पढ़ने वालों या सामान्यतया समाज के लिए फायदेमंद हो सकती हैं। मैंने इन्हें भलाई की मंशा से लिखा है। और मैं यह कदापि नहीं मानता कि जो कुछ कहा गया है, उसे जस का तस स्वीकार कर लिया जाए। मेरी पांच ज्ञानेंद्रियों ने जो आंकड़े इकट्ठा किए, यह उनसे बना एक शब्द चित्र भर है। आलोचना और टिप्पणियों का स्वागत है लेकिन जवाब देने के लिए वक्त निकाल पाने की मैं गारंटी नहीं करता।)